चल-फिर,
दौड़- भाग रहा है
। पहाड़ सर्पिल राहों पर। जाने कहाँ - कहाँ घूम आया है वह इन ठहरी हुई सी सड़कों
के सहारे। स्थिर तो पहले भी वह नहीं था । गुनगुनाता हुआ सरकता था टेढ़ी - मेढ़ी , तंग सजीव पगडंडियों पर। कितने ही रिश्ते नाते
बना लेता था मिलने वालों से। जब प्यास , थकान करता था महसूस बेझिझक खटखटा दिया करता
था घरों के दरवाजे । घर भी बाहें फैलाये करता था अभिन्दन । बैठने को झट से ले आता
था पटड़ा। बिना पूछे लोटे में परोस देता था नीर। कौन?, कहाँ के हैं? कहाँ जा रहे हैं? पूछते-पूछते चाय धर देता था
सामने। पेट में कुछ गया भी है कि नहीं पूछ कर घर जुट जाता था इंतजाम में। शाम ढल आती थी तो
घर नहीं निकलने देता था बाहर। देर रात तक होती थीं बातें । सुबह-सवेरे ही घर रहता
था तैयार खाने की पोटली के साथ विदाई के लिए। जिन्दगी भर न भूल पाने वाली यादें
संजोकर पहाड़ बढ़ता था अपनी राह पर । बड़ी मौज़ थी पहाड़ की । हर कोई अपना था। प्यारा
था। सगा था। मौज में तो पहाड़ आज भी है पर वो पहले वाली नहीं । सरपट भाग रहा है पहुँचने को अपने गन्तव्य पर। बिना गुनगुनाये, बिना गुदगुदाए रिश्तों को, सामाजिक ताने -बाने
को.
@संजय कुमार
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